देहरादून की गलियों में गर्मी बढ़ रही है, और राजनीति के गलियारों में भी। उत्तराखंड की त्रिस्तरीय पंचायतों में चुनाव की घड़ी आ चुकी है, लेकिन सरकार अब भी घड़ी की सुइयों को देखने में उलझी है। पंचायतीराज एक्ट का संशोधन अधर में लटका है और ओबीसी आरक्षण की गणना अधूरी और ऐसे में पंचायती लोकतंत्र की सांसें हाप्रशासकोंह के ऑक्सीजन सिलेंडर पर टिकी हैं। प्रदेश की 12 पंचायतें, जिनका कार्यकाल नवंबर और दिसंबर 2024 में ही खत्म हो चुका था, अब अस्थायी तौर पर प्रशासकों के हवाले हैं। अजीब विडंबना है जहां चुनाव होने चाहिए थे, वहां नियुक्ति से काम चलाया जा रहा है। और जो लोकतंत्र की सबसे मजबूत कड़ी होने चाहिए थे ग्राम प्रधान, बीडीसी प्रमुख और जिला पंचायत अध्यक्ष वहीं अब प्रशासक बनकर शासन चला रहे हैं। सरकार की निगाहें अब राजभवन पर टिकी हैं, जहां पंचायतीराज एक्ट का संशोधन अध्यादेश विचाराधीन है। इस अध्यादेश को मंजूरी मिलने के बाद ही चुनाव की अधिसूचना जारी हो पाएगी। लेकिन सवाल यही है कि ये मंजूरी कब आएगी? जनता इंतजार में है, अधिकारी असमंजस में, और नेता बयानबाजी में। राज्य निर्वाचन आयोग के आयुक्त सुशील कुमार का कहना है कि आयोग पूरी तरह तैयार है मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण हो चुका है। लेकिन आयोग भी तभी आगे बढ़ पाएगा जब सरकार अपना ाउसवर्क पूरा कर ले। यानी पंचायतीराज एक्ट का संशोधन पारित हो, और ओबीसी आरक्षण का निर्धारण तय हो। बिना इसके चुनाव करवाना न केवल तकनीकी रूप से मुश्किल है, बल्कि संवैधानिक संकट को भी जन्म देगा।एक्ट के अनुसार प्रशासकों का कार्यकाल अधिकतम छह महीने ही होता है, जो अब मई के अंत में समाप्त हो रहा है। अगर इस दौरान भी सरकार ने निर्णय नहीं लिया तो पंचायत व्यवस्था पूरी तरह से वैधानिक संकट में फंस सकती है गौरतलब है कि हरिद्वार जिले को छोड़कर शेष 12 जिलों में पंचायत चुनाव एक साथ होते हैं, जबकि हरिद्वार में चुनाव यूपी के पंचायती चुनावों के साथ कराए जाते हैं। लेकिन बाकी जिलों की पंचायतों में लोकतंत्र अब ‘इंतजार के मोड’ में है। अब गेंद सरकार के पाले में है। क्या उत्तराखंड सरकार इस बार समय रहते फैसले ले पाएगी? या फिर लोकतंत्र का यह सबसे निचला लेकिन सबसे मजबूत स्तंभ बार-बार स्थगित होता रहेगा ? यहा सवाल ये है कि क्या पंचायत चुनावों की नींव भी अब राजनीतिक गणनाओं के तले दव जाएगी? जवाब, एक बार फिर राजभवन से ही आएगा।
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