क्या डिपो नम्बर 4-5 में घोटाले का हुआ है बड़ा खेला ? क्या डिपो में लकड़ी के नाम पर हुई लूट, नियमों की कब्र पर खड़े अफसर अब राजधानी में संभाल रहे हैं सफेद कुर्सी…  रिपोर्ट (चन्दन सिंह बिष्ट) “स्टार खबर” 

167

क्या डिपो नम्बर 4-5 में घोटाले का हुआ है बड़ा खेला ?

क्या डिपो में लकड़ी के नाम पर हुई लूट, नियमों की कब्र पर खड़े अफसर अब राजधानी में संभाल रहे हैं सफेद कुर्सी…

  • रिपोर्ट (चन्दन सिंह बिष्ट) “स्टार खबर”
  • देहरादून /नैनीताल -:

यह खबर उत्तराखंड के नैनीताल जिले से है जहां जंगलों की लकड़ी कटी, बिकी और फिर नियमों को काट-काटकर ऐसे फेंका गया, जैसे यह देश सिर्फ ठेकेदारों और अधिकारियों के लिए बना हो। लालकुआं स्थित उत्तराखंड वन विकास निगम के डिपो नंबर 4 और 5 की जहां अंदरूनी ऑडिट में करोड़ों का घोटाला पकड़ में आया है। और जैसे हर बार होता है, इस बार भी असली गुनहगार बच निकले और बलि के बकरे बने वही स्केलर, कंप्यूटर ऑपरेटर और चौकीदार। गौरतलब है कि वर्ष 2023 में जब यह मामला खुला, तब विभाग ने बताया कि घपला ज्यादा नहीं है बस कुछ लाख का ही है। जैसे जनता को अब कुछ भी कह दो, वो चुपचाप मान लेती है। तुरंत छोटे कर्मचारियों को सस्पेंड कर दिया गया। और फिर शुरू हुआ ह्यजांच का नाटकह्न। विभाग ने एक कमेटी बनाई जिसके अध्यक्ष विभाग के महाप्रबंधक व तीन सदस्य जिनमें क्षेत्रीय प्रबंधन पश्चिमी तराई, क्षेत्रीय प्रबंधन मुख्यालय व क्षेत्रीय प्रबंधन लेखा प्रबंधन को शामिल किया गया। यह जांच कमेटी पिछले तीन साल से बैठी है, और जवाब देने के नाम पर मौन व्रत में है। और फिर जब साल-दर-साल का ऑडिट हुआ तो रिपोर्ट ने सबकी आंखें खोल दीं। ये घोटाला 8 लाख नहीं, 15 से 20 करोड़ रुपये का आंका जा रहा है। बता दें कि वन विकास निगम के नियम कहते हैं कि ठेकेदार को नीलामी के बाद माल उठाने से पहले जीएसटी सहित पूरा पैसा जमा करना होगा। लेकिन लालकुआं डिपो नम्बर 5 में नया कानून लिखा गया सिर्फ. 50 प्रतिशत रुपये जमा करो, और पूरा माल उठा लो। सूत्र बताते हैं कि यह मौखिक स्वीकृति दी गई तत्कालीन आरएम महेश चंद्र आर्य और डीएसएम अनिल कुमार के द्वारा। इनके दस्तखत के बिना कोई ट्रक डिपो से बाहर नहीं निकल सकता फिर लाखों का माल बिना पूरा भुगतान किए कैसे निकल गया? सूत्र तो बता रहे हैं कि उस दौरान अधिकारियों ने स्टाफ की कमी का बहाना बनाकर स्केलरों को लेखा कार्य सौंपा, संविदा कर्मियों को प्रशासनिक जिम्मेदारी दे दी। यहां तक कि मृतक आश्रितों को भी भरोसेमंद समझकर घपले की चाबी थमा दी गई ताकि अगर कुछ पकड़ा जाए, तो बलि का बकरा तय हो। लेकिन फिर भी, सबसे अहम दस्तावेजों पर किसके दस्तखत थे? आरएम और डीएसएम के। वही अधिकारी, जिनके बिना कोई बिल पास नहीं होता। तो फिर सवाल यह है कि जब दस्तावेजों पर आरएम और डीएसएम के हस्ताक्षर थे, तो कार्रवाई सिर्फ छोटे कर्मचारियों पर क्यों? क्या संविदा कर्मियों या मृतक आश्रितों को लेखा संबंधी जिम्मेदारी देना स्वयं में नियम विरुद्ध नहीं था? आखिर ये नकद लेन-देन किसके निर्देश पर हुआ ? और एसआईटी की जांच कब तक चलेगी ? और सबसे अहम यह है कि जिस अधिकारी पर शक की सुई है, वो अब देहरादून मुख्यालय में जीएम और आरम की कुर्सी पर कैसे बैठा हुआ है? कुल मिलाकर डीएसएम अनिल कुमार तो रिटायर होकर आराम से घर पर हैं। और आरएम महेश चंद्र आर्य को प्रमोशन की तरह देहरादून मुख्यालय भेज दिया गया है वो भी जीएम के प्रभार के साथ। और जांच ? वो 2024 से अब तक एसआईटी क के पेंडिंग फोल्डर में धूल फांक रही है। कुल ल मिलाकर इस देश में पेड़ों की लकड़ी ही नहीं, पाँ ईमानदारी भी काटी जाती है पर शोर नहीं स होता, क्योंकि उसे काटने वाले अफसरों के जि पास सत्ता की कुल्हाड़ी होती है। है। और जो लोग वि आज भी कुर्सी पर बैठे हैं, वो जांच को भी उसी वि डिपो से चला रहे हैं, जहां परिंदा बिना उनके ज दस्तखत के पर नहीं मार सकता था। इस के सम्बन्ध में हमनें मुख्यालय में तैनात कुछ अधिकारियों से बात करने की कोशिश की तो उनका फोन स्विच ऑफ आया ।।